पहाड़ों के बीच एक रेंगती सड़क और उस्से गुजरती एक पुश बैक सीट्स वाली बस मचलती हुई तीखे मोरो से होकर एक गर्म चाय के लिए किसी ढाबे पे ठहरती इसकी हमें आदत सी हो गई है। ग्रीष्म की गर्मी में बारिश की रिमझिम मे यह अपनी धुन में दौड़ती रात की अंधियारी को चीरती हुई यह खोजती अपनी राहें कभी कड़कती ठंड के कोहरे में अब तो आदत सी हो गई है। माँ की बनाई रोटी हाथ में लिए खिड़की खोले बैठे हम उन गुजरते रास्तों को देखते कर चुके ये सफ़र हम न जाने कितनी बार एक अपनापन है इन नजारों में पल भर में ये भी ओझल हो जाते हैं आँखों से पर हमें तो आदत सी हो गई है। वही नजारे वही पुराने रस्ते और वही सुहानी हवा मेरा माथा सहलाकर कुछ लोरी सा सुनाती और नींद के सागर में हम डूब जाते ऐसी हमें आदत सी हो गई है।। ©mr.maiti
Not all thoughts translate into words. Some die in a whisper.